छोटी होती जा रही हैं, अतः इसी स्थिति को ध्यान में रख कर कृषि में सुधार करना होगा. देश में 1 हेक्टेयर से कम आकार की 12.59 करोड़ जोतें थी, जबकि 1 से 4 हेक्टेयर के बेंच के आकार की 1.93 करोड़ और 4 से 10 हेक्टेयर की 8.3 लाख जोतें थी. सरकार चाहती है कि किसान खेती छोड़ें, और उनकी जमीन इकठ्ठा करके बड़ी कंपनियों के हाथों में सौंप दी जायें. इस सोच के साथ “सुधार” की नीतियां अपनायी जा रही हैं. इन सुधारों का सबसे अहम हिस्सा है, कृषि सब्सिडी यानी कृषि क्षेत्र में दी जा रही रियायतों को कम से कम करना. जब रियायतें कम होंगी तो उत्पादन की लागत बढ़ेगी और बाज़ार में कीमतें भी. इसका असर व्यापक समाज पर पड़ेगा. अमेरिका और यूरोप जैसे देश कृषि पर भारत से 50 से 300 गुना ज्यादा सब्सिडी देकर उत्पादन लागत को कम देते हैं और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लेते हैं. सब्सिडी की इस असमानता का प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कृषि उपज की कीमतों पर पड़ता है. कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की रिपोर्ट (2020-21) बताती है कि दूसरी तिमाही में भारत में गेहूं का थोक मूल्य 1909 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1925 रुपये क्विंटल था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में गेहूं 1639 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहा था. भारत में जब जौ का थोक मूल्य 1518 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1525 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में जौ 742 रुपये प्रति क्विंटल के भाव में मिल रहा था. भारत में धान का थोक मूल्य 1698 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1815 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में 2038 रुपये प्रति क्विंटल था. मक्के के मामले में भारत अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में टिकता ही नहीं है. हमारे यहां मक्के का थोक भाव 1839 रुपये प्रति क्विंटल और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1760 रुपये प्रति क्विंटल है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में 1188 रुपये प्रति क्विंटल था. भारत में ज्वार का थोक भाव 2373 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में इसके आधे से कम कीमत थी –1163 रुपये. इसके दूसरी तरफ दालों का उत्पादन कम होता है और उसे आयात करना पड़ता है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में उसकी कीमतें ज्यादा होती हैं. भारत में चने का थोक मूल्य 4102 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 4875 रुपये प्रति क्विंटल था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में चने का मूल्य 5518 रुपये था. यही बात मसूर (भारत– 4800 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 5513 रुपये), अरहर (भारत –5800 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 4982 रुपये), उड़द (भारत –5174 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 6997 रुपये) के लिए भी लागू होती है. भारत को खेती और खाद्य सुरक्षा के मामले में सबसे पहले अपनी जमीन, संसाधन और किसानों का हिता देखना चाहिए. खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भरता की सबसे पहला लक्ष्य होना चाहिए, बजाये मुनाफाखोरी को संरक्षण प्रदान करने के. ऐसा नहीं है कि कृषि में निजीकरण और कॉर्पोरेटीकरण करने के बाद भारत की सब्सिडी कम होगी; वस्तुस्थिति यह है कि सरकार बड़े व्यापारिक घरानों को सब्सिडी प्रदान करेगी.

खाद्यान्न के स्थानीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार की खाई

Sachin Kumar Jain सरकार का बहुत बड़ा रणनीतिक सपना है कि हमारा किसान अंतर्राष्ट्रीय कृषि बाज़ार में जाकर प्रतिस्पर्धा करे और देश का विकास करे. न्यूनतम समर्थन मूल्य और सरकार के संरक्षण पर निर्भर न हो. हम यह भूल जाते हैं कि भारत के किसान के पास पूंजी और संसाधन नहीं हैं. भारत में वर्ष 2016 में जोत का औसतन आकार 1.08 हेक्टेयर मात्र था. जोतें लगातार">https://lagatar.in/">लगातार
छोटी होती जा रही हैं, अतः इसी स्थिति को ध्यान में रख कर कृषि में सुधार करना होगा. देश में 1 हेक्टेयर से कम आकार की 12.59 करोड़ जोतें थी, जबकि 1 से 4 हेक्टेयर के बेंच के आकार की 1.93 करोड़ और 4 से 10 हेक्टेयर की 8.3 लाख जोतें थी. सरकार चाहती है कि किसान खेती छोड़ें, और उनकी जमीन इकठ्ठा करके बड़ी कंपनियों के हाथों में सौंप दी जायें. इस सोच के साथ “सुधार” की नीतियां अपनायी जा रही हैं. इन सुधारों का सबसे अहम हिस्सा है, कृषि सब्सिडी यानी कृषि क्षेत्र में दी जा रही रियायतों को कम से कम करना. जब रियायतें कम होंगी तो उत्पादन की लागत बढ़ेगी और बाज़ार में कीमतें भी. इसका असर व्यापक समाज पर पड़ेगा. अमेरिका और यूरोप जैसे देश कृषि पर भारत से 50 से 300 गुना ज्यादा सब्सिडी देकर उत्पादन लागत को कम देते हैं और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लेते हैं. सब्सिडी की इस असमानता का प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कृषि उपज की कीमतों पर पड़ता है. कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की रिपोर्ट (2020-21) बताती है कि दूसरी तिमाही में भारत में गेहूं का थोक मूल्य 1909 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1925 रुपये क्विंटल था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में गेहूं 1639 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहा था. भारत में जब जौ का थोक मूल्य 1518 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1525 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में जौ 742 रुपये प्रति क्विंटल के भाव में मिल रहा था. भारत में धान का थोक मूल्य 1698 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1815 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में 2038 रुपये प्रति क्विंटल था. मक्के के मामले में भारत अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में टिकता ही नहीं है. हमारे यहां मक्के का थोक भाव 1839 रुपये प्रति क्विंटल और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1760 रुपये प्रति क्विंटल है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में 1188 रुपये प्रति क्विंटल था. भारत में ज्वार का थोक भाव 2373 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में इसके आधे से कम कीमत थी –1163 रुपये. इसके दूसरी तरफ दालों का उत्पादन कम होता है और उसे आयात करना पड़ता है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में उसकी कीमतें ज्यादा होती हैं. भारत में चने का थोक मूल्य 4102 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 4875 रुपये प्रति क्विंटल था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में चने का मूल्य 5518 रुपये था. यही बात मसूर (भारत– 4800 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 5513 रुपये), अरहर (भारत –5800 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 4982 रुपये), उड़द (भारत –5174 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 6997 रुपये) के लिए भी लागू होती है. भारत को खेती और खाद्य सुरक्षा के मामले में सबसे पहले अपनी जमीन, संसाधन और किसानों का हिता देखना चाहिए. खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भरता की सबसे पहला लक्ष्य होना चाहिए, बजाये मुनाफाखोरी को संरक्षण प्रदान करने के. ऐसा नहीं है कि कृषि में निजीकरण और कॉर्पोरेटीकरण करने के बाद भारत की सब्सिडी कम होगी; वस्तुस्थिति यह है कि सरकार बड़े व्यापारिक घरानों को सब्सिडी प्रदान करेगी.
छोटी होती जा रही हैं, अतः इसी स्थिति को ध्यान में रख कर कृषि में सुधार करना होगा. देश में 1 हेक्टेयर से कम आकार की 12.59 करोड़ जोतें थी, जबकि 1 से 4 हेक्टेयर के बेंच के आकार की 1.93 करोड़ और 4 से 10 हेक्टेयर की 8.3 लाख जोतें थी. सरकार चाहती है कि किसान खेती छोड़ें, और उनकी जमीन इकठ्ठा करके बड़ी कंपनियों के हाथों में सौंप दी जायें. इस सोच के साथ “सुधार” की नीतियां अपनायी जा रही हैं. इन सुधारों का सबसे अहम हिस्सा है, कृषि सब्सिडी यानी कृषि क्षेत्र में दी जा रही रियायतों को कम से कम करना. जब रियायतें कम होंगी तो उत्पादन की लागत बढ़ेगी और बाज़ार में कीमतें भी. इसका असर व्यापक समाज पर पड़ेगा. अमेरिका और यूरोप जैसे देश कृषि पर भारत से 50 से 300 गुना ज्यादा सब्सिडी देकर उत्पादन लागत को कम देते हैं और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लेते हैं. सब्सिडी की इस असमानता का प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कृषि उपज की कीमतों पर पड़ता है. कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) की रिपोर्ट (2020-21) बताती है कि दूसरी तिमाही में भारत में गेहूं का थोक मूल्य 1909 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1925 रुपये क्विंटल था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में गेहूं 1639 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहा था. भारत में जब जौ का थोक मूल्य 1518 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1525 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में जौ 742 रुपये प्रति क्विंटल के भाव में मिल रहा था. भारत में धान का थोक मूल्य 1698 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1815 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में 2038 रुपये प्रति क्विंटल था. मक्के के मामले में भारत अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में टिकता ही नहीं है. हमारे यहां मक्के का थोक भाव 1839 रुपये प्रति क्विंटल और न्यूनतम समर्थन मूल्य 1760 रुपये प्रति क्विंटल है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में 1188 रुपये प्रति क्विंटल था. भारत में ज्वार का थोक भाव 2373 रुपये प्रति क्विंटल था, तब अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में इसके आधे से कम कीमत थी –1163 रुपये. इसके दूसरी तरफ दालों का उत्पादन कम होता है और उसे आयात करना पड़ता है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में उसकी कीमतें ज्यादा होती हैं. भारत में चने का थोक मूल्य 4102 रुपये और न्यूनतम समर्थन मूल्य 4875 रुपये प्रति क्विंटल था, किन्तु अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में चने का मूल्य 5518 रुपये था. यही बात मसूर (भारत– 4800 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 5513 रुपये), अरहर (भारत –5800 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 4982 रुपये), उड़द (भारत –5174 रुपये और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार- 6997 रुपये) के लिए भी लागू होती है. भारत को खेती और खाद्य सुरक्षा के मामले में सबसे पहले अपनी जमीन, संसाधन और किसानों का हिता देखना चाहिए. खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भरता की सबसे पहला लक्ष्य होना चाहिए, बजाये मुनाफाखोरी को संरक्षण प्रदान करने के. ऐसा नहीं है कि कृषि में निजीकरण और कॉर्पोरेटीकरण करने के बाद भारत की सब्सिडी कम होगी; वस्तुस्थिति यह है कि सरकार बड़े व्यापारिक घरानों को सब्सिडी प्रदान करेगी.